Friday 8 July 2011

dushyant kumar

किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम
किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया

वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता
चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया

जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा
तसव्वुर ऐसे ग़ैर—आबाद हलकों तक चला आया

लगन ऐसी खरी थी तीरगी आड़े नहीं आई
ये सपना सुब्ह के हल्के धुँधलकों तक चला आया

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